कविता - आत्म मुग्धता

 *कविता- आत्म मुग्धता*

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हे जन नायक क्षण निज कर्तव्य विचारो,  

तज निःस्व भाव जन गण की दशा निहारो l

हे प्रजापाल करुणा हो विकल  प्रजा पर, 

क्षण आत्म मुग्धता त्यागो दम्भ बिसारो l


दिन- दिन भूधर सत्ता का दम्भ हुआ है , 

अद्भुत चारण युग का प्रारम्भ हुआ है  l

वाचाल सचेतक  भूल गए मर्यादा, 

अब मूक बधिर चौथा स्तम्भ हुआ है l


नभ पथ गामी गंधर्व मनुज छवि धारो,

पुष्पक विमान दुखियों के बीच उतारो l

शोषित पीड़ित जन पीर  निकट आ देखो, 

उत्तर जीवन संकट से नाथ उबारो l


हे अंक गणित मर्मज्ञ  भेद के ज्ञाता, 

हो कृपा दीन दुखियों पर स्वप्न प्रदाता l

जीवन यापन का यक्ष प्रश्न सन्मुख है, 

हो मूल्य वृद्धि पर अंकुश रंच विधाता l


यह चक्र अक्ष पर घूमे काल निरंतर, 

कब कौन शीर्ष पर स्थिर रहा यहाँ पर l

चिरा शाश्वत नहीं किरीट न यह सिंघासन, 

है  कौन जगत जो युगों रहा नृप होकर l

©संजीव शुक्ला 'रिक्त'

टिप्पणियाँ

  1. अत्यंत उत्कृष्ट एवं प्रभावशाली सृजन 💐🙏🏼

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